चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
अपने मुक़द्दर में नहीं..
मंदिरों में आप मन चाहे भजन गाया करें
मैकदा ये है यहाँ तहज़ीब से आया करें
रात की ये रौनकें अपने मुक़द्दर में नहीं
शाम होते ही हम अपने घर चले आया करें
साथ जब देता नहीं साया अँधेरे में कभी
रौशनी में ऐसी शय से क्यूँ न घबराया करें
बन्द रहते हैं जो अक्सर आम लोगो के लिये
अपने घर में ऐसे दरवाज़े न लगवाया करें
ये हिदायत एक दिन आयेगी हर स्कूल में
मुल्क की तस्वीर बच्चों को न दिखलाया करें
क्यूँ नहीं आता है इन तूफ़ानी लहरों को शऊर
कम से कम कागज़ की नावों से न टकराया करें
सफ़र डूब रहा है..
दुनिया की ले के खैर-ख़बर डूब रहा है
तय कर लिया सूरज ने सफ़र डूब रहा है
हम मंदिरों-मस्जिद को बचाने में लगे हैं
घर की है नहीं फ़िक्र के घर डूब रहा है
मँझधार में नेता जो दिखा, लोग ये बोले
अच्छा है अजी डूबे अगर डूब रहा है
उस डूबने वाले के मुक़द्दर को कहें क्या
तिनके का सहारा है मगर डूब रहा है
तस्वीर बनाते हैं जो कपड़ों के बिना ही
उन काँपते हाथों से हुनर डूब रहा है
ख़ुशी भी नहीं..
हनारे चेहरे पे ग़म भी नहीं ख़ुशी भी नहीं
अँधेरा पूरा नहीं पूरी रौशनी भी नहीं
है दुश्मनों से कोई ख़ास दुश्मनी भी नहीं
जो दोस्त अपने हैं उनसे कभी बनी भी नहीं
मैं कैसे तोड़ दूँ दुनिया से सारे रिश्तों को
अभी तो पूरी तरह उससे लौ लगी भी नहीं
अजीब रुख़ से वो बातों को मोड़ देता है
कि जैसे बात ग़लत भी नहीं, सही भी नहीं
तुम्हारे पास हक़ीक़त में इक समन्दर है
हमारे ख्व़ाब में छोटी-सी इक नदी भी नहीं
कोई बताये ख़ुशी किसके साथ रहती है
हमें तो एक ज़माने से वो दिखी भी नहीं
लो फिर से आ गये बस्ती को फूँकने के लिये
अभी तो पहले लगाई हुई बुझी भी नहीं
अजीब बात है दीपावली के अवसर पर
करोड़ो बच्चों के हाथों में फुलझड़ी भी नहीं
तुम्हारा नाम आया रात भर..
पूछिये मत क्यों नहीं आराम आया रात भर
उनके आने का ख़याले-ख़ाम आया रात भर
और लोगो की कहानी सुन के मैं करता भी क्या
मेरा अफ़साना ही मेरे काम आया रात भर
याद करने को ज़माने भर के ग़म भी कम न थे
भूलने को बस तुम्हारा नाम आया रात भर
मयकदे से तश्नालब लौटे थे शायद इसलिये
ख्व़ाब में रह-रह के ख़ाली जाम आया रात भर
देखना है अब कहाँ रह पायेगी तौबा मेरी
मेरे ख़्वाबों में उमरख़य्याम आया रात भर
वक़्त कम है काम काफ़ी दोस्तो कुछ तो करो
उम्र के ख़ेमे से ये पैग़ाम आया रात भर
ख़ुद पर तो एतबार आये..
क्या ये मुमकिन नहीं भार आये
और आये तो बार-बार आये
आप पर एतबार कर तो लूँ
पहले ख़ुद पर तो एतबार आये
जिसने मुझको दिये थे ग़म ही ग़म
अपनी ख़ुशियाँ उसी पे वार आये
चार दिन की ये ज़िन्दगी का लिबास
कुछ ने पहना है, कुछ उतार आये
बेवफ़ा होंगे वो किसी के लिये
मुझसे मिलने तो बार-बार आये
ख्व़ाब को ख्व़ाब की तरह देखो
फूल आये ये उसमे ख़ार आये
पं. कृष्णानंद चौबे
- जन्म : 5 अगस्त 1913 (फर्रुखाबाद)
- निधन : 14 मार्च 2010 (कानपुर)
- शिक्षा : स्नातक
- जीवन : सन् 1953 से 1960 तक बनारस से प्रकाशित ‘अमृत पत्रिका’ दैनिक में उप-सम्पादक |
- सन् 1961 से 1980 तक उद्योग निदेशालय (उ.प्र.) कानपुर में ‘इंडस्ट्रीज़ न्यूज़ लेटर’ का सम्पादन
- सन् 1990 में सेवानिवृत होने के उपरान्त जीवनपर्यंत दैनिक जागरण, कानपुर से सम्बद्ध रहे |
- विशेष : साहित्य की विविध विधाओं यथा गीत, ग़ज़ल, हास्य-व्यंग्य, आलेख. समीक्षा एवं पत्रकारिता में निरंतर सृजनरत रहे |
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