कमला कृति

मंगलवार, 31 मई 2016

मयंक अवस्थी की ग़ज़लें


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


वही  अज़ाब  वही  आसरा..


वही  अज़ाब  वही  आसरा  भी  जीने का
वो मेरा दिल ही नहीं ज़ख्म भी है सीने का

मैं बेलिबास  ही शीशे के  घर में रहता हूँ
मुझे भी शौक है  अपनी तरह से जीने का

वो  देख  चाँद की पुरनूर  कहकशाओं  मे
तमाम  रंग  है  खुर्शीद  के  पसीने   का

मैं पुरख़ुलूस हूँ फागुन की दोपहर की  तरह
तेरा  मिजाज़  लगे  पूस  के  महीने  का

समंदरों  के  सफ़र  में सम्हाल कर रखना
किसी  कुयें  से जो पानी मिला है पीने का

'मयंक' आँख में सैलाब उठ न पाये कभी  
कि  एक अश्क मुसाफिर है इस सफीने का
                           

  • अज़ाब=पीड़ा 
  • पुरनूर कहकशाओं = ज्योतिर्मय व्योम गंगाओं 
  • खुर्शीद=सूर्य 
  • पुरखुलूस=अत्मीयता से भरा हुआ


क़ैदे-शबे-हयात बदन में..


क़ैदे-शबे-हयात बदन में गुज़ार के
उड़ जाऊँगा मैं सुबह अज़ीयत उतार के

इक धूप ज़िन्दगी को यूँ सहरा बना गयी
आये न इस उजाड़ में मौसम बहार के

ये बेगुनाह शम्म: जलेगी तमाम रात
उसके लबों से छू गये थे लब शरार के

सीलन को राह मिल गयी दीमक को सैरगाह
अंजाम देख लीजिये घर की दरार के

सजती नहीं है तुमपे ये तहज़ीब मग़रिबी 
इक तो फटे लिबास हैं वो भी उधार के

बादल नहीं हुज़ूर ये आँधी है आग की
आँखो से देखिये ज़रा चश्मा उतार के

जब हथकड़ी को तोड़ के क़ाफ़िर हुआ फ़रार
रोते रहे असीर ख़ुदा को पुकार के

  • क़ैदे-  शबे-  हयात- जीवन रूपी रात्रि की कैद
  • मग़रिबी –पश्चिमी  

 

कभी यकीन की दुनिया में..


कभी यकीन की दुनिया में जो गये सपने
उदासियों के समन्दर में खो गये सपने

बरस रही थी हक़ीकत की धूप घर बाहर
सहम के आँख के आँचल में खो गये सपने

कभी उड़ा के मुझे आसमान तक लाये
कभी शराब में मुझको  डुबो गये सपने

हमीं थे नींद में जो उनको सायबाँ समझा
खुली जो आँख तो दामन भिगो गये सपने

खुली रही जो मेरी आँख मेरे मरने पर
सदा–सदा के लिये आज खो गये सपने
                                                                             

खुलती ही नहीं आँख..


खुलती ही नहीं आँख उजालों के भरम से
शबरंग हुआ जाउँ मैं सूरज के करम से

तरकीब यही है उसे फूलों से ढका जाय 
चेहरे को बचाना भी है पत्थर के सनम से

इक झील सरीखी है गज़ल दश्ते-अदब में 
जो दूर थी, जो दूर रही, दूर है  हम से

आखिर ये खुला वो सभी ताज़िर थे ग़ुहर के 
जिनके भी मरासिम थे मेरे दीदा-ए-नम से

क्योंकर वो किसी मील के पत्थर पे ठहर जाय       
क्यों रिन्द की निस्बत हो तेरे दैरो-हरम से

ये मेरे तख़ल्लुस का असर मुझ पे हुआ है
अब याद नहीं अपना मुझे नाम कसम से

  • करम –कृपा
  • ताज़िर –व्यापारी
  • तख़ल्लुस –उपनाम
  • रिन्द – मयकश
  • निस्बत –सम्बन्ध
  • दैरो-हरम- मन्दिर –मस्ज़िद 

तारों से और बात में..


तारों से और बात में कमतर नहीं हूँ मैं
जुगनू हूँ इसलिये कि फ़लकपर नहीं हूँ मैं

सदमों की बारिशें मुझे कुछ तो घुलायेंगी
पुतला हूँ ख़ाक का कोई पत्थर नहीं हूँ मैं

दरिया-ए-ग़म में बर्फ के तोदे की शक्ल में

मुद्दत से अपने क़द के बराबर नहीं हूँ मैं

उसका ख़याल उसकी  ज़ुबाँ उसके तज़्किरे
उसके क़फ़स से आज भी बाहर नहीं हूँ मैं

मैं तिश्नगी के शहर पे टुकड़ा हूँ अब्र का      
कोई गिला नहीं कि समन्दर नहीं हूँ मैं

टकरा के आइने से मुझे इल्म हो गया             
किर्चों से आइने की, भी बढकर नहीं हूँ मैं

क्यूँ ज़हर ज़िन्दगी ने पिलाया मुझे “मयंक”  
वो भी तो जानती थी कि,शंकर नहीं हूं मैं   

  • तज़्किरे –ज़िक्र
  • तिश्नगी =प्यास
  • अब्र =बादल 
  • दरिया-ए-ग़म=दु:ख के दरिया में
  • बर्फ केतोदे==बर्फ क ढेर (हिमशैल का छोटा रूप )


मयंक अवस्थी



  • जन्म-25 जून, 1964/हरदोई (उत्तर प्रदेश) 
  • साहित्यिक परिचय–ग़ज़ल तथा गीत विधाओं में रचनायें तथा समीक्षायें । 
  • सम्पादन–गज़ल संग्रह 'तस्वीरें पानी पर' (1999), 'लफ़्ज़' पत्रिका के वेब एडिशन का सम्पादन सन 2012 से. 
  • सम्प्रति –भारतीय रिज़र्व बैंक कानपुर में कार्यरत 
  • सम्पर्क–बी -11, भारतीय रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास, तिलक नगर, कानपुर-208002 
  • ईमेल-awasthimka@gmail.com 

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी गजलें प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!

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  2. "Subodh Srijan" ka bahut bahut aabhaari huuN ki unhoNne MayaNkji kii GHazleN yahaaN prakaashit kiiN. Unke shaayraana ruup se mera parchay ab 5-6- baras puraana hai....hamesha unka kalaam nayaapan lekar aata hai aur unki gahri fikr kaa akkaas hota hai. YahaaN jo shreshth GHazleiN prakaashit hui haiN unmeN se kisii ek GHazak ya kuchh KHaas ash'aar ko anya ke muQaable shreshtha ghoshit karna GHalat hoga. Sab GHazleN maumuii taur par bahut achchhi ban paDi haiN aur in GHazloN ke sher bahut der tak paathak ke saath rah jaane ki sifat rakhte haiN. Ye do sher zehn meN lambe arse tak ghuumeNge:
    MaiN belibaas hii shiishe ke ghar men rahta huun
    Mujhe bhi shauq hai apni tarah se jiine ka.

    MaiN tishnagi ke shehr meN tukDaa huuN abr ka
    Koi gila nahiin ki samandar nahiin huun main.

    Bahut dhanyavaad MayaNkji, bahut dhanyavaad "Subodh SSrijan".

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  3. सुबोध साहब बहुत-बहुत शुक्रिया। मयंक जी अपने ख़ास अन्दाज़ के लिये जाने जाते हैं। इन की ग़ज़लें टिपिकल सब्जेक्ट्स पर बड़े ही अनोखे अन्दाज़ में टिप्पणी करती हैं। नई ज़मीनें ईजाद करना इन का प्यारा शगल है। आप दौनों को बहुत-बहुत बधाई।

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