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चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
हम पत्थर
हम पत्थर
चुपके से
चिपक कर पहाड़
सटे रहते हैं
एक दूसरे से अपनत्व में।
और इंसान कहलाते हम
जब मर्जी पहुंच जाते हैं,
अपनी जरुरतों के मारे
उन्हें सताने को
काट खाने को
अपनी सँस्कृति, अपनी सभ्यता बढ़ाने को।
क्या कभी
पहाड़ भी आए हैं
हमें सताने को ?
बहते-बिखरते
जीवन में
बिखरने से बहना ही अच्छा होता है सदा
ढलाव पर बहना और
निष्चित गंतव्य तक पहुँच जाना,
चाह, प्यास, व गड्ढे भरते चले जाना अनजानी राह के।
शुरू से अंत तक -
एक प्राकृतिक प्रक्रिया के तहत
और फिर एकत्रित हो जाना सहमति में।
मगर, बिखरने से कुछ नहीं सजता,
तनाव ही हाथ आता है जीवन भर का।
निरुद्देश्य, बेवजह टूट-टूट कर गिरना,
बिल्कुल भी न संभलना न समझना हालातों को
और फट ही जाना
कभी न जुड़ने के लिये।
कर्मों उपासना
मैं उठता हूँ सुबह,
हाथ जोड़कर ईश्वर से लेना चाहता हूँ,
उसके संकेत, दिशा-निर्देश दिन भर के लिये।
ताकि मैं कर सकूँ आत्मप्रण से
पूरा अनुसरण उनके प्रेषित संकेतों का
और मेरा दिन,शांति,सफलता,उपकार में बीते,
लगे मेरा कण-कण, श्रण-श्रण उसी की कर्मों उपासना में।
और यों दिन-दिन करके ही
जीवन बन जायेगा निर्मल-निष्पाप,
बूंद-बूंद से घड़ा भर जायेगा -
और इस घट का जल ही कभी भवसागर में मिल जायेगा
उसी की एक पतली सुनहरी लहर बनकर याकि
नभ में लहरायेगा, सूर्य में मिल जायेगा
रोशनी की एक लकीर बनकर।
प्रकृति प्रेम-मिलन
निशा गुजर जाती है,
सलमा सितारों टंकी काली रेशमी चादर लिये-लिये
छम-छम करती....
और दिवाकर भी बहता जाता है
रात की चाह में, इंतजार में हमेशा …
दोनों ही आते-जाते मिलते- देखते समय संधि पर
एक दूसरे को - प्यास लिये,चाह लिये।
महीनों रहते एक दूसरे के वियोग में,विछोह में,
और भारी होता जाता तन-मन।
महीनों का विछोह-वियोग फिर जब टूटता है
तो रात चढ़ जाती है दिन के ऊपर पूरे जोश से,
ढक-काला कर लेती है अपने उत्तेजित शरीर से और
तब रात के जिस्मों गरूर में दिन कहाँ सफेद होता है।
तब कड़कती है बिजलियाँ,
बरसने लगता है निर्मल जलधार रूपी प्रकृति का प्यार
बहता -उतरता है शिवत्व अपने चमत्कार में,
और धरती पर हो जाता -
सब नवल-धवल, खिला-धुला, धुला-खिला।
पनपति वनस्पति भी उसके बाद ही,
और पृथ्वी भी हल्की-ताजी हो,
कुछ अधिक चमकती तेज, फुर्तीली हो,
घूमने लगती है अपनी धुरी पर।
पेड़ का महत्व
हवा फुसफुसाती
पेड़ के कानों में कुछ,
पेड़, हँसने-झूमने लग जाते हैं मस्ती में
अपनी जिज्ञासा में जलता-सोचता मैं.....
हवा से पेड़ का जो नाता है,
हमसे क्यों नहीं बन पाता है ?
क्योंकि इन्सान दूषित करता हवा को
पेड़ प्रदूषण मिटाता है इसलिये
इन्सान से ज्यादा
पेड़ महत्व का हो जाता है।
सुरेन्द्र भसीन
- जन्म तिथि: 17 जून/1964 (नई दिल्ली)।
- कार्य क्षेत्र: विभिन्न प्राइवेट कम्पनीज में एकाउंट्स के क्षेत्र में सेवा।
- निवास: के -1/19 ए, न्यू पालम विहार गुड़गांव, हरियाणा में पिछले 15 वर्षों से निवास।
- ब्लॉग - surinderbhasin.blogspot.in
- सम्पर्क: मो-9899034323
- ईमेल - surinderb2007@hotmail.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (20-07-2017) को ''क्या शब्द खो रहे अपनी धार'' (चर्चा अंक 2672) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार मयंक जी..
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