चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
समन्दर की शुभकामनाएं
समन्दर ने अपनी आवाज
लहरों का शोर अपनी जगह
घूमती दीवारों में गूंजते सन्नाटे अपनी जगह...।
तुम्हारी कश्ती में लगे ढेर में
एक घोंघा अब भी है चुपचाप
तुम बेिफकर बढ़े जा रहे हो लहरों पर
समन्दर को जीत लेने के दावे करते हुए...।
शौर तुम्हारी आवाज में आकर ढूंढ लेता है एक कोना
समन्दर की आवाज
तुम्हारी आवाज के शोर में घुल जाती है
आवाज को गाढ़ा करती हुई...।
तुम्हारे कान कब अभ्यस्त हो गए
तुम नहीं जान पाआगे...।
दूर किनारे पर, बहकर आया ठहरा वह कटा पेड़
हंसता है
जैसे जैसे तुम पहुंच रहे हो उस पार
उसे पता है तुम भी भूल गए हो रास्ता
यूं ही चल दिए उनीदे से, जाने किस धुन में...।
कहा था तुमसे बचना
शोर संक्रामक होता है
एक बार उठाकर लगा लेते एक घोंघे को कान से
आवाज़ों में भी होते हैं रास्तों के नक्शे...।
लहरों से जूझने की थकान व्यर्थ होती
सीपियों की मुस्कुराहट पढ़ लेते
उस पार की रेत निहारने से पहले...।
तुम्हारा जयघोष बहुत ऊंचा रहे शुभकामनाएं
हां
समन्दर तुमसे अब कुछ नहीं कहेगा....
उम्र भर समन्दर की आवाज़ ना सुन पाओगे तुम...।
जाओ किनारे तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं....।
तुम्हें ढूंढते हुए
तुम्हें ढूंढने...!
जरा सा छू सकता था हवा को
जरा सा ताक सकता था आसमान
पानी की नाप में नहीं नाप सकता था तुम्हें
डुबो लेता पैर सांझ ढलते ढलते
जरा सा भिगो लेता हथेलियां...
लहर पर लहर आकर गिरी
मैं भीगा नहीं....।
पेड़ हिलाते रहे हाथ
खोले रहे बाहें,
फुनगियों पर नाचती रही मुस्कुराहट
पत्तियां खड़खड़ाती रहीं
सुन ना सका....।
तनी हुई गर्दन का ऐंठना भी
तय ना कर सका ऊंचाई...
पहाड़ की सबसे छोटी चोटी
मुझसे कितनी ऊंची है
इतना सा ही तो जानना था मुझे...।
बस मेरी ही जिद थी
सूरज से आंख मिलाने की
वरना उजाले में दिखता था सब साफ साफ
कुछ था ही नहीं जो छिपाया तुमने
तब किसे ढूंढता रहा...?
जाने कौनसा गर्व लेकर चला आया तुम्हें ढूंढने...!
झूठ बोलती स्त्री
जरुरी हो जाता है जब उन्हें कह देना
तब झूठ बोलती है स्त्री....।
झूठ बोलती है स्त्री
कि हां सब ठीक है, मां से बात करते हुए
पिता को आश्वस्त करते हुए
कि उन्हें जरुरत नहीं है यहां आने की
कि जैसे उन्हें सिर्फ वहीं जाना चाहिए
जहां सब ठीक ना हो...।
झूठ बोलती है
कि उसने तो पहले ही खा लिया था
बनाते बनाते, ये जो कम रहा है शेष
इससे चल जाएगा उसका काम
वैसे भी उसे भूख कम लगती है इन दिनों
तुम संतुष्ट होते हो जाते हो झूठ से
क्योंकि तुम जानते हो सच...।
रात भर के सफर में
बहुत पीछे छूट गई स्त्री
आवाज देने के लिए तलाशती रही अपनी आवाज
सुबह होने तक...जहां तुम्हारा दिन शुरु होता है
और उसकी यात्रा...।
शेष देह को संभालते हुए
झूठ बोलती है स्त्री प्रेम की आड़ लेकर
नहीं बताती कि हाथ छूट गए थे
पहले कदम के साथ ही
कि बिस्तर पर पहुंचने से पहले ही दम तोड़ गया था....प्रेम।
चेहरे पर आंख के ठीक नीचे की चोट
कितनी भी सच हो
नहीं टिक पाती स्त्री के झूठ के सामने
कहीं भी तो गिर सकता है कोई,
गिरने को कहां चाहिए कोई बहाना
होठों को जरा सा खींचकर मुस्कुराते हुए
सच को गिरा देती है आंख से, आंख छिपाकर
जब झूठ बोलती है स्त्री....।
झूठ बोलती है स्त्री कि बचा रहे तुम्हारा सच
तुम्हारे कमजोर सच
जाने कब कसे जाएं संदेह के पंजों में
स्त्री बनाती है तुम्हारे लिए रक्षा कवच
झूठ की ध्वनियां मंत्रों से बिंधी हैं
ये समझते समझते ही समझ आएगा तुम्हें...।
रहने दो, तुम सच की जीत के ये आख्यान
स्त्री के झूठ
शास्त्रों की मदद से नहीं पढ़े जा सकते
अपने ही सच नहीं सुन सकते स्त्री के मुंह से
स्त्री के सच जानने की बात जाने दो...
कविता की तरह नहीं बांचे जाते स्त्री के सच
तुम्हारी कल्पना में बहुत सुंदर है स्त्री
उसे उतना ही समझो
सत्यं और शिवम जप-तप-पाठ के लिए छोड़ दो....।
चांद-रातें
चांद-रातों में जब वह होती है चांद के साथ अकेली...।
घर भर के लोगों को नींद में भरमाकर
सबसे आंख बचाकर
सिर्फ उसे देखता है चांद
जब वह लगाती है बाहर लोहे के गेट पर
रात का ताला
सुनसान गली में उसके साथ
अकेला होता है चांद....।
उसी के लिए ठहरता है चांद
अलसुबह सबके उठने से पहले
बताकर जाता है उसे
रात भर की कहानी
उसे जाते हुए देखकर हाथ हिलाती है स्त्री
हाथ हिलते हैं और आंगन में बिखरी चांदनी
बुहारी जाती है...।
दिन खुलते-खुलते खुलती है सबकी आंख
सब चढ़ता सूरज देखते हैं तब
चुपके से मैले कपड़ों के ढेर में जा छुपता है चांद
स्त्री गट्ठर उठाती है और चल देती है
इधर रसोईघर से उठता है धुआं
उधर चांद चमकता है अलगनी पर...।
सफेद चीनी मिट्टी की प्लेटों पर
हल्दी के दाग
चांद के धब्बे हैं, जानती है स्त्री
उसके सधे हाथ लौटा लाते हैं चमक
चांद उतर आता है सिंक में
और ठंडे पानी में चुपचाप बह जाती है मैली चांदनी...।
उसके चेहरे में चांद है
पहली बार कहा था उसके प्रेमी ने
तब से चांद उसके सपनों में था
चांद रातें अमावस नहीं जानतीं थीं...।
गरम पानी से रगड़ रगड़ कर चमकाती है फटी एडि़यां
चेहरे पर लगाती है मुस्कुराहट की गाचनी
और दिन ढलते ढलते उसकी आंखों में उतर आता है चांद...।
कट जाता है जब दिन कटते कटते
कल सुबह के लिए सब्जी काटकर रखते हुए
बतियाती है स्त्री पड़ोस की स्त्रियों से
चमकते हैं स्त्रियों के चेहरे
सब की सब बात करती हैं चांद रातों की
कभी चांद की...कभी रातों की...।
चांदनी के झूले में झूलती है स्त्री
सुबह के चांद से रात के चांद तक
जितना आगे जाती है...उतना पीछे लौट आती है
वह अकेली झूलती है झूला चांदनी का
उसके साथ झूलती हैं चांद-रातें....।
छौंकी गई कविता
कोई जादू नहीं जानती है वह
जो करती है उसमें जादू जैसा नहीं है कुछ भी
उसे बस अच्छा लगता है कविता लिखना
वह लिखती है....।
धुंधली सुबह में होता है कविता का पहला पाठ
जब आखिरी तारा उसे देखते ही मूंद लेता है आंख
ठीक वैसे जैसे उसका बेटा
करता है शरारत, अक्सर...।
वह जानती है शरारती तारे को उठते ही
चाहिए गरम दूध
िफ्रज से निकालती है
और गैस के चूल्हे पर गरम करती है कविता
उफनने से पहले उसके सधे हाथ
संभाल लेते हैं और कविता अपनी लय से बाहर नहीं जाती....।
आंगन भर फैले शब्दों को बुहारकर
डाल आती है आलोचना के खाते में
और पानी की बाल्टी लेकर पौंछ डालती है भेद-मतभेद
जरा से गीलेपन में बार बार िफसलने से बच जाती है कविता....।
उसे याद रहते हैं कविता के सारे संस्कार..सारे कर्म
भले ही भूल जाए कविता का गणित...।
कल के ठंडे विचारों को निकाल कर छीलती है
काटती है शब्द दर शब्द..कभी गोल, कभी लंबाई में
गरम करती है कड़ाही में वैयाकरण
छौंकती है काव्यशास्त्र के सिद्धांत
और कविता की खुशबू
दूर तक फैल जाती है, कवियो के उठने से पहले...।
नहीं, सच में जादू नहीं जानती है वह
कविता भी नहीं जानती है वह
जानने का काम तो तुम्हारा है....वह तो रचती है बस...
तुम चाहो तो इसे जादू कह लो....।
माया मृग
- जन्म: 26 अगस्त/1965 (राजस्थान)
- शिछा: परस्नातक
- प्रकाशन: पॉंच पुस्तकें प्रकाशित
- संप्रति: बोधि प्रकाशन, जयपुर में कार्यरत
- फोन: 09829018087
- ईमेल: bodhiprakashan@gmail.com
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