चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
(एक)
घुट गई है हर सदा या बोलता कोई नहीं ?
बाद-ए- मुद्दत आइना देखा तो उसमें मैं न था,
जो दिखा, बोला वो मुझसे मैं तेरा कोई नहीं |
हर कोई अच्छे दिनों के ख़ाब में डूबा तो है,
पर बुरे दिन के मुक़ाबिल ख़ुद खड़ा कोई नहीं |
हम अगर चुप हैं तो हम भी बुज़दिलों में हैं शुमार,
हम अगर बोलें तो हम सा बेहया कोई नहीं |
बरगला रक्खा है हमने खुद को उस सच्चाई से,
अस्ल में दुनिया का जिससे वास्ता कोई नहीं
अपनी बाबत क्या है उनकी राय, फरमाते हैं जो,
राहजन चारों तरफ हैं रहनुमा कोई नहीं |
(दो)
आईना हैं, खुद में अब पत्थर भरे बैठे हैं हम |
हम अकेले ही सफ़र में चल पड़ें तो फ़िक्र क्या,
अपनी नज़रों में कई लश्कर भेरे बैठे हैं हम |
जौहरी होने की ख़ुशफ़हमी का ये अंजाम है,
अपनी मुट्ठी में फ़कत पत्थर भरे बैठे हैं हम |
लाडला तो चाहता है जेब में टॉफी मिले,
अपनी सारी जेबों में दफ़्तर भरे बैठे हैं हम |
हमने अपनी शख्सियत बाहर से चमकाई मगर,
इक अँधेरा आज भी अन्दर भरे बैठे हैं हम |
(तीन)
झूठ को लेकिन दिखा सकता है ख़ंजर आइना |
शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है,
पत्थरों के शहर में घूमा था दिन भर आइना |
गमज़दा हैं, खौफ़ में हैं, हुस्न की सब देवियाँ,
कौन पागल बाँट आया है ये घर-घर आइना |
आइनों ने खुदकुशी कर ली ये चर्चा आम है,
जब ये जाना था की बन बैठे हैं पत्थर, आइना |
मैंने पल भर झूठ-सच पर तब्सिरा क्या कर दिया,
रख गए हैं लोग मेरे घर के बाहर आइना |
अपना अपना हौसला है, अपना अपना फ़ैसला,
कोई पत्थर बन के खुश है कोई बन कर आइना |
(चार)
शीशे के घर में लग रहे लोहे के फाटक देखिये
जो ढो चुके हैं इल्म की गठरी, अदब की बोरियां
वह आ रहे हैं मंच पर बन कर विदूषक देखिये
जिनके सहारे जीत ली हारी हुई सब बाजियां
उस सत्य के बदले हुए प्रारूप भ्रामक देखिये
जब आप नें रोका नहीं खुद को पतन की राह पर
तो इस गिरावट के नतीजे भी भयानक देखिये
इक उम्र जो गंदी सियासत से लड़ा, लड़ता रहा
वह पा के गद्दी खुद बना है क्रूर शासक देखिये
किसने कहा था क्या विमोचन के समय, सब याद है
पर खा रही हैं वह किताबें, कब से दीमक देखिये
जनता के सेवक थे जो कल तक, आज राजा हो गए
अब उनकी ताकत देखिये उनके समर्थक देखिये
(पांच)
छीन लेगा मेरा .गुमान भी क्याइल्म लेगा ये इम्तेहान भी क्या
ख़ुद से कर देगा बदगुमान भी क्या
कोई ठहरेगा मेह्रबान भी क्या
है मुकद्दर में कुछ उड़ान भी क्या
इस ज़मीं पर है आसमान भी क्या
मेरा लहजा ज़रा सा तल्ख़ जो है
काट ली जायेगी ज़बान भी क्या
धूप से लुट चुके मुसाफ़िर को
लूट लेंगे ये सायबान भी क्या
इस क़दर जीतने की बेचैनी
दाँव पर लग चुकी है जान भी क्या
अब के दावा जो है मुहब्बत का
झूठ ठहरेगा ये बयान भी क्या
मेरी नज़रें तो पर्वतों पर हैं
मुझको ललचायेंगी ढलान भी क्या
वीनस केसरी
- जन्म तिथि - १ मार्च 1985
- शिक्षा - स्नातक
- संप्रति - पुस्तक व्यवसाय व प्रकाशन (अंजुमन प्रकाशन)
- प्रकाशन - प्रगतिशील वसुधा, कथाबिम्ब, अभिनव प्रयास, गर्भनाल, अनंतिम, गुफ्तगू, विश्व्गाथा आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़ल,गीत व दोहे का प्रकाशन
- -हरिगंधा, ग़ज़लकार, वचन आदि में ग़ज़ल पर शोधपरक लेख प्रकाशित
- विधा - ग़ज़ल, गीत, छन्द, कहानी आदि
- प्रसारण - आकाशवाणी इलाहाबाद व स्थानीय टीवी चैनलों से रचनाओं का प्रसारण
- पुस्तक - अरूज़ पर पुस्तक “ग़ज़ल की बाबत” प्रकाशनाधीन
- विशेष - उप संपादक, त्रैमासिक 'गुफ़्तगू', इलाहाबाद
- (अप्रैल २०१२ से सितम्बर २०१३ तक)
- - सह संपादक नव्या आनलाइन साप्ताहिक पत्रिका
- ( जनवरी २०१३ से अगस्त २०१३ तक)
- पत्राचार - जनता पुस्तक भण्डार, 942, आर्य कन्या चौराहा,
- -मुट्ठीगंज, इलाहाबाद -211003
- मो. - (0)945 300 4398
सभी गज़लें बहुत सुंदर हैं। बार बार पढ़ीं।
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