कमला कृति

रविवार, 19 अप्रैल 2015

आशुतोष द्विवेदी के गीत



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



कोई निर्णय कर जाने दो..



कोई निर्णय कर जाने दो
मिलने दो या मर जाने दो

शब्द निरर्थक, निश्चेतन थे,
उनमें डाले अर्थ नए क्यों ?
और सजे जब गीत अधर पर,
बिना सुने ही चले गए क्यों ?

कब से प्राण पुकार रहे हैं,
तुम तक मेरे स्वर जाने दो

एक सुगन्धित झोंका आकर,
भावों को झकझोर गया था
खोज रही है श्वास तभी से,
वह जाने किस ओर गया था ?

सुरभि वही फिर प्रियतम
मेरे अंतरतम तक भर जाने दो

उसी लहर के साथ चल दिए,
जो लेती थी नाम तुम्हारा
आज फँसे हैं भँवर में,
छूट गया हर एक सहारा

पीछे लौट नहीं सकते हैं,
अब उस पार उतर जाने दो

प्रतिबंधित जब पंथ प्रणय के,
पद करते संधान रहे क्यों?
नियम अभी प्रतिकूल समय के,
आशाएं गतिमान रहे क्यों?

जीवन का यथार्थ बन जाओ
या सब स्वप्न बिखर जाने दो




मौसम का दीवाना होना..



तू-तू, मैं-मैं, पाना-खोना
भीतर भी है, बाहर भी
आना-जाना, रोना-धोना,
भीतर भी है, बाहर भी

भावों का मुरझाना या
बागों में पतझर का आना
कोई भेद नहीं, दोनों
में ही गहरा सूनापन है
पीड़ा का हँसना या
वासंती पवनों का इठलाना
कोई भेद नहीं, दोनों
में ही प्राणों की थिरकन है

आँसू की रिमिझिम हो
या फिर बहके बादल की झड़ियाँ
मौसम का दीवाना होना,
भीतर भी है, बाहर भी

एक बात ऐसी जो मन में
गहरा घाव बना देती
एक बात ऎसी जो घायल
मन को गीत सुनाती है
एक बूँद ऎसी जो सीपी में
गिरकर मोती बनती
एक बूँद ऐसी जो मरुथल में
गिरकर खो जाती है

किसके साथ कहाँ कब
क्या हो जाये कोई क्या जाने !
जंतर-मंतर, जादू-टोना,
भीतर भी है, बाहर भी

अंतस के आँगन में
मर्यादाओं की सड़ती लाशें
झरते अंगारे ममता की
भीनी-भीनी अलकों से
कंकालों का अनशन,
भूखे उदरों की नारेबाज़ी
लहू टपकता समता की
देवी की प्यासी पलकों से

ऐसे-ऐसे दृश्य कि जिनको
देख दहल जाते सीने
कहने को संसार सलोना,
भीतर भी है, बाहर भी

ठहरावों में सदा रही फिर
नए सफ़र की तैयारी
हँसने वाली आँखों में भी
छिपी कहीं कुछ नमी रही
कोई गीत जिसे पूरा
करने में इतने गीत रचे
उसके पूरा होने में
हर बार ज़रा सी कमी रही

कितने भी हम यत्न करें
पर संभव नहीं जिसे भरना
नन्हा सा वह खाली कोना,
भीतर भी है, बाहर भी



तुम सोचा करते हो..



तुम सोचा करते हो
अच्छे-ख़ासे लौटे हैं
हम तो नदिया के
तट से भी प्यासे लौटे हैं

ख़ुशियों को हमने
पाना चाहा बाज़ारों में
सच्चाई की सीमा को
बांधा अख़बारों में
हाय, न जाने पागल
मन क्यों जान नहीं पाया!
सूरज की वह आग नहीं
मिल सकती तारों में

अँधियारे की भूल-भुलैया
में खोये थे हम
भटकन की, भ्रम की
लम्बी कारा से लौटे हैं

मकड़ी के जालों जैसे
सम्बन्ध बनाए थे
भावों के शव इन कन्धों
पर बहुत उठाये थे
जाने काँटों से कितनी
उम्मीदें बांधीं थीं
हर क्यारी में नागफनी
के पेड़ लगाये थे
जहाँ न अपना साया भी
अपना साथी होता
सूनेपन की उसी चरम
सीमा से लौटे हैं
क्या मजबूरी थी माली
ने उपवन बेच दिया?
पूजा करने वालों ने
देवायन बेच दिया!
जाने क्या मजबूरी थी,
ये नयन न भर पाए?
ख़ुद, घर के लोगों ने ही
घर-आंगन बेच दिया!

मुस्काते गीतों जैसे
उस पार गए लेकिन
लौटे हैं तो रोती हुई
कथा से लौटे हैं

अनजाना था नयनों की
भाषा का परिवर्तन
बना पहेली मन की
अभिलाषा का परिवर्तन
नक़ली व्यक्तित्वों के
षङ्यंत्रों ने कर डाला
मौलिकता की मौलिक
परिभाषा का परिवर्तन

वासंती मौसम ने
इतने धोखे दिए हमें
अब तो केवल पतझड़
की आशा से लौटे हैं




ऐसी है उधेड़बुन..



ऐसी है उधेड़बुन जिसको
लाख मनाऊँ साथ न छोड़े
उधर तुम्हारी प्रीत पुकारे,
इधर ज़माना हाथ न छोड़े

भाँति-भाँति की बातें आती
रहती हैं इस पागल मन में
कभी तुम्हें दोषी ठहराता,
कभी बिठा लेता पूजन में
भला या बुरा चाहे जैसा,
मगर सोचता सिर्फ़ तुम्हीं को
अनुभव रखने वाले शायद,
कहते होंगे प्यार इसी को

दुनियादार कभी बन जाऊँ,
कभी प्यार में गोते खाऊँ
कभी सशंकित, कभी अचंभित,
कभी समर्पित-सा हो जाऊँ

कभी बुद्धि संकल्प करे फिर
डाँवाडोल कभी हो जाए
इसे तुम्हारी ख़ुशी समझ कर
अपने भ्रम में ही इतराए

कभी पुरानी परंपरा कोई
फिर से हावी हो जाए
चित्त संकुचित हो जाए
तब अपने ऊपर ही पछताए
इसी डूबने-उतराने का खेल
न जाने कब से चलता
ले हिचकोले जीवन-बेड़ा
कभी बहकता, कभी संभालता

सरल नहीं संघर्ष प्रिये यह,
लेकिन जूझ रहा मैं अब तक
भीतर कोई ताक़त है जो
मुझको कभी अनाथ न छोड़े

ऐसी है उधेड़बुन जिसको
लाख मनाऊँ साथ न छोड़े
उधर तुम्हारी प्रीत पुकारे,
इधर ज़माना हाथ न छोड़े



आशुतोष द्विवेदी 


भारतीय राजदूतावास,
अद्दिस अबाबा,
इथियोपिया |
ईमेल:ashutoshdwivedi1982@gmail.com

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