चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
मेरी राह
न में इधर हूँ, न में उधर हूँ
न मैं तेरा, न मैं उसका
न मैं इस गुट का,
न उस गुट का
मुझे न किसी से बैर,
न किसी से लगाव
न मैं मानू इस मठ को,
न मैं मानू उस दरगाह को
न मैं मानू इस रब को,
न मैं मानू किसी और रब को
मैं सबमे रह कर भी हूँ सबसे अकेला
न मैं हिन्दू, न मैं मुसलमान
न मैं ईसाई, न मैं सिख
मैं तो हूँ बस एक इंसान और
मानता हूँ इंसानियत को
किसी के आंसू पोंछ पायु
किसी के लब पर ख़ुशी ला पाऊ
यही मेरा मकसद, यही मेरी मंजिल
यही मेरा रस्ता यही मेरी रह
चल पायो तो साथ चालों
वर्ना मैं हूँ खुद ही राही
अपनी मंजिल का
कैसा ये प्यार है
एक उम्र गुज़र गयी है
संग रहते रहते
फिर भी न तुम समझ
सके न हम
तुम जानते हो क्या है
मेरा नजरिया
में भी जानता हूँ
तुम्हारा दृष्टिकोण
जानते है दोनों ही
क़ि कही ठीक है हमसफ़र
पर ज़िद है अपनी अपनी की
सरकते नहीं है अपनी ज़मीन से
साथ रह कर परेशानियाँ भी झेलते है
और रह भी नहीं पाते
एक दूसरे के बगैर
कैसा अजब ये रिश्ता है,
कैसा ये प्यार है
इलेक्ट्रोनिक मीडिया
मैं एक अनचाहा मेहमान,
घुसा तुम्हारी ज़िन्दगी में
कमरे के एक कोने में,
कपडा डाल रख दिया गया
पर मुझमे कुछ आकर्षण था,
की घडी की नोक पर
सारा परिवार साथ बैठ
मुझे निहारता था और मेरे द्वारा
अपना मनोरंजन समझता था
मेरी पेठ गहरी थी और मैं बैठक से धीरे
धीरे तुम्हारे शयन कक्ष पहुँच गया
जब तक तुम कुछ समझ पाते
मैं पूंजीवादियों के हाथों
उनकी कठपुतली बन चुका था
अब तुम सब मेरे २४ घंटों के प्रोग्रामो में
इतना ज़कड़ चुके हो, की चाह कर भी इस
चंगुल से निकल नहीं सकते. मैंने तुम्हे
नशे के घूँट पिला दिए है, और तुम हर
बात जानने के लिए मुझ पर ही निर्भर हो
मैं ही खेल , मैं ही खबरे,
मैं ही मनोरंजन,
मैं ही फैशन, मैं ही सिनेमा,
मैं ही संगीत, मैं ही समाज,
मैं ही व्यभिचार, मैं ही संस्कार,
मैं ही बन गया हूँ सबकुछ
सोच समझ, पढाई लिखाई से
दूर कर, जोड़ लिया
मुझसे नाता, और सर्जनात्मकता का
कर दिया अंत
मैं ही मीडिया ट्रायल करता, मैं ही जज, मैं ही प्रार्थी
मैं डिबेट के नाम पर बहस कराऊ भोंडे इल्जाम लगवाऊँ
मैं ही चरित्र हनन करूँ और मैं ही लगाऊ मलहम
कोई मुझ पर ऊँगली न उठाए, चाहे मैं हूँ कितना भ्रष्ट
तुम अब एक दूसरे के बिना तो जी सकते हो
पर मेरे बिना नहीं, मैंने है कई घर उजाड़े,
कई दम्पतियों के संबंधों में दूरियां बना दी
मुझमे है अब इतना आकर्षण क़ि मिट न
पाए चाहे आपसी दूरिया,
मेरी हस्ती है की मिटती नहीं
ऐसे में कविता क्यों न हो
जहाँ गगनचुम्बी देवदार और ताड़ के पेड़ हो
जहाँ हर और प्रहरी हिमालय की चोटिया हो
जहाँ हरे भरे पेड़ स्नान किये मग्न हो
जहाँ वादियाँ कोहरे की चादर ओढे हो
जहाँ घुमावदार ऊपर नीचे आती सड़के हो
जहाँ हर और शांति का आलम हो
जहाँ पक्षियों की चहक ही संगीत हो
जहाँ सुबह सबेरे दिनकर प्रकाशमान हो
जहाँ हर और घनघोर हरियाली हो
जहाँ पावों से पतों की चरमराहट सुनती हो
जहाँ हलकी गर्मी में वरुण मेहरबान हो
जहाँ प्रक्रति पूर्णता शबाब पर हो
ऐसे में कविता क्यों न हो,
ऐसे में कविता क्यों न हो
जहाँ विभिन्य फूलों की प्रजातियाँ खिलती हो
जहाँ जानवर भी चैन से भ्रमण करते हो
जहाँ झरनों में स्वच्छ पानी बहता हो
जहाँ हर शिखर पे देवो का वास हो
जहाँ पहुँच अपनी अपने से पहचान हो
जहाँ हवा पानी में प्रदुषण न हो
ऐसे में कविता क्यों न हो,
ऐसे में कविता क्यों न हो
जहाँ रुक रुक बादल बरसते हो
जहाँ दिन में शाम हो जाती हो
और हर शाम शांति की चादर ओढ़े हो
जहाँ हर पल कुदरत रंग बदलती हो
जहाँ इन्द्र-धनुष भी दिखते हो
जहाँ छन छन के धूप बिखरती हो
जहाँ सतरंगी से बादल हो
और बादलों का ही ' कैनवस ' हो
जहाँ पूरी कायनात सांस लेती हो
जहाँ मानसिक असंतुलन न हो
ऐसे में कविता क्यों न हो,
ऐसे में कविता क्यों न हो
जहाँ अंधी दौड़ के तनाव न हो
जहाँ चेहरों पे नेसर्गिक आभा हो
जहाँ पहुँच चेहरों पे खुशियाँ आती हो
जहाँ हर और कुदरत की हसीन पेंटिंग्स हो
ऐसे में कविता क्यों न हो,
ऐसे में कविता क्यों न हो
जहाँ बर्फ से ढके पहाड़ हो,
जहाँ पर्वत श्रंखलाये श्वेत वस्त्र धारी हो
जहाँ मुहँ से गर्म धुयाँ निकलता हो
जहाँ नल-कूपो में पानी जम जाए
जहाँ पेड़ों से बर्फ लटकती हो
जहाँ सांह सांह बहती हवाए हो
जहाँ प्रकति की गोद के सिवा कुछ न हो
ऐसे में कविता क्यों न हो
ऐसे में कविता क्यों न हो
जहाँ लोग निश्छल और सीधे साधे हो
जहाँ कम में गुज़ारा होता हो
जहाँ शोर शराबा और भग्दढ़ न हो
जहाँ अफरा-तफरी, मार काट कुछ न हो
जहाँ सादगी ही जीवन हो
ऐसे में कविता क्यों न हो
ऐसे में कविता क्यों न हो
सब अकेले
गैरों की भीड़ में तो सब अकेले होते है
हम अपनों के बीच रह कर भी अकेले है
जुड़े है कितनो से यह हमें मालूम नहीं
पर हम से कब जुड़ा कोई हमें याद नहीं
हर रिश्ता जुड़ता है केवल स्वार्थ से
हर वो रिश्ता कसता है बन्धनों में
मन की सच्चाई से जी भी न सके
यूँ तो कहने को हमें पूरी आज़ादी है
सारी उम्र हम दूसरो को समझते रहे
समझा है हमको भी क्या कभी किसी ने
आज इसी गुत्थी को सुलझाने में
हम हैरान और परेशां तन्हा बेठे है !
विनोद पासी 'हंसकमल'
Attache (चीन)
पूर्व एशिया प्रभाग,
कमरा नं 255 ए,
साउथ ब्लॉक, नई दिल्ली
फ़ोन-011-23014900
ईमेल-vinodpassy@gmail.com
बहुत सुंदर कवितायें आदरणीय विनोद पासी हंसकमल जी की ...
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