कमला कृति

बुधवार, 18 जुलाई 2018

डाॅ. मधु प्रधान के गीत


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


गीत के गाँव में..


गीत के गाँव में
दर्द की छाँव में 
प्रीति की बाँसुरी मैं बजाती रही
याद आती रही गीत गाती रही ।

कामना की नदी का उमड़ना सतत 
चाँद छूने को लहरें मचलने लगीं 
नेह की निर्झरी में कुमुदिनी खिली
थी युगों की उदासी पिघलने लगी 

किन्तु टूटा सपन 
छल गई इक किरन
फिर भी प्रिय वेदना गुनगुनाती रही ।

रेत के घर का बनना बिगड़ना है क्या 
खेल है बस कोई क्या संभाले इसे 
नीर के बुलबुले सा है जीवन क्षणिक 
कौन जाने लहर कब मिटा दे इसे 

जो मिले नेह पल 
भाव -भीने सरल 
रत्न सा मैं संजोती ,सजाती रही 
याद आती रही गुनगुनाती रही ।।
             
             

अर्घ्य ले हाथ में..

 
 अर्घ्य ले हाथ मे 
 मैं सुबह से खड़ी 
सूर्य निकला नहीं ,दोपहर हो गई ।

वे सुनहरे कथानक कहाँ खो गये
चन्दनी गीत थे आज क्या हो गये
अक्षरा थीं ऋचायें 
मधुर नेह की 
क्या हुआ दर्द की इक लहर हो गई ।

छूटी अमराइयाँ भूले कोकिल बयन 
बिखरे-बिखरे सपन ,भीगे भीगे नयन 
दौड़ते - भागते 
हाँफते-हाँफते 
जिन्दगी स्वेद से तर -ब -तर हो गई ।

भोर से शाम तक ,शाम से भोर तक 
गाँव की देहरी से क्षितिज छोर तक 
भटकता रहा मन 
कहाँ से कहाँ 
तीन पग बस चले थे उमर हो गई ।
अर्घ्य ले हाथ में 
मैं सुबह से खड़ी 
सूर्य निकला नहीं दोपहर हो गई ।

               

कुछ सुधियों के गीत..


कुछ सुधियों के गीत
और कुछ आँसू लाये हैं
आज अटारी पर कुछ
काले बादल छाये हैं ।

बेहतर होगा चुप रहने से 
कुछ भी तुम बोलो 
छोटी छोटी बातों पर 
मत रिश्तों को तोलो 

विरह पलों में दोनों ने ही 
अश्रु बहाये हैं ।

याद तुम्हें भी तो होंगी 
वह मीठी सी बातें 
वो सोने से दिन मोहक 
चांदी जैसी रातें 

हँसती हुई जुन्हाई के
कुछ पल मुस्काये हैं ।

मनुहारों के गीत गा रही 
कोयल रस घोले 
उम्मीदों की सोन चिरैया 
पंखों को खोले 

अलसाई पलकों के 
मृदु सपने अकुलाये हैं 
     

कचनारी धूप 

         
मेरे आँगन में 
उतरी है
कोमल सी 
रतनारी धूप ।

नर्म हुये सूरज के तेवर
नयन अधखुले 
अलसाये से 
बाँह छुड़ा कर 
दौड़ गई है 
बिखरी क्यारी-क्यारी धूप ।

जैसे उड़ती 
सोन चिरैया 
आ मुँड़ेर पर 
बैठ गई हो 
कुछ पल रुक कर 
घूम रही है 
घर, आँगन बंसवारी धूप ।

पी से मिल 
लौटी मुग्धा सी 
चहक रही 
कुछ लजा रही 
किस से मन को 
हार गई है 
छुईमुई कचनारी धूप 
     

मौसम के तेवर 

     
बिन बोले बदला करते हैं 
मौसम के तेवर ।

कई दिनों से ठंडा है 

यह लिपा-पुता चूल्हा 
बिन ब्याहे लौटी बारात का 
जैसे हो दूल्हा 

उम्मीदें कच्ची दीवार सी 

ढहती हैं भर-भर । 

बरस रहे बादल, कहते हैं

बरस रहा सोना 
खाली हैं बर्तन ,घर का 
खाली कोना -कोना 

पूस -माघ की सर्दी 

उस पर टपक रहा छप्पर ।

हमरेहू कब दिन बहुरेंगे 

पूछ रही धनिया
जब उधार मांगें तो 
लौटा देता है बनिया 

क्या बेचूँ ,गिरवी रक्खे हैं 

घर के सब जेवर ।

कुछ तो कहो प्रधान

दिखाये सपने बड़े -बड़े 
एक कदम भी बढ़े नहीं
हम तो हैं यहीं पड़े 

पूरी ताकत से हो हाकिम 

तुमको  किसका डर ।



डाॅ. मधु प्रधान 


  • जन्मतिथि-20 मार्च, 1948 (पुखरायां-कानपुर)
  • पति-स्व. राम प्रकाश सक्सेना (एडवोकेट)
  • पिता-डाॅ. बलराम चरन प्रधान
  • माता-श्रीमती यशवन्त कुमारी 'यश'
  • शिक्षा- एम०ए० (हिन्दी) बी०एड०, एम०बी०ई०एच० त्रिवर्षीय चिकित्सा डिप्लोमा 
  • कार्यक्षेत्र- गीत, छंदमुक्त, गजल और मुक्तक दोहे आदि छंदों में निरंतर रचनाशील। इसके अतिरिक्त बाल साहित्य में विशेष रुचि। 
  • प्रकाशन-'नमन तुम्हें भारत' (राष्ट्रीय गीत संग्रह)। अनेक गीतों, गजलों, बालगीतों तथा बालकथा संग्रहों में रचनाएँ संकलित। आकाशवाणी व दूरदर्शन द्वारा निरंतर प्रसारित। 
  • सम्मान पुरस्कार- विभिन्न साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत। 
  • सम्पर्क-3 A/58 -A, आजाद नगर, कानपुर-208002
  • फोन-09236017666, 08562984895
  • ईमेल- madhu.pradhan.kanpur@gmail.com 

2 टिप्‍पणियां:

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