कमला कृति

बुधवार, 25 जुलाई 2018

पाँच गीत-कल्पना 'मनोरमा'


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



जाओ सावन के घन कारे..


जाओ सावन के घन कारे
जाकर बरसो उनके द्वारे ।

सँग ले जाना माँ की ममता 
और पिताजी की शाबाशी 
मत कहना कुछ मेरे मन की 
मैं तो हूँ बस उनकी  दासी 
रूखा-सूखा हाथ न लेना 
मधुरिम दिन दे आना सारे ।

आँगन की माटी ले जाना 
गलियों से ले जाना यारी
दामन में ले जाना भरकर 
बिटिया रानी की छवि प्यारी 
चुपके से दिखलाना उनको 
नैना सुधियों के रतनारे ।

सीमाएँ यदि सबल बनी तो 
समझूँगी आबाद हुए घर 
लाहकेंगीं फसलें खुशियों की 
छलक उठेंगे मन के सरवर 
हानि -लाभ का लेखा-जोखा 
रख जाना तुम यहीं किनारे ।

शुष्क वनों को यूँ सरसाना 
महक उठें जैसे वन चन्दन 
उदयाचल से अस्ताचल तक 
खुशियों का फैलाना वन्दन 
जयति जयति स्वर लाना उनके 
जिनमें बसते प्राण हमारे ।


नेह डोरी में तुम्हारी..


नेह डोरी में तुम्हारी बँध रहूँ 
या तोड़ दूँ 
ढीला पड़ा हर एक बंधन 
तय करेगी यह तुम्हारी ही 
सदेच्छा ॥

समय चौखट पर उगे 
भ्रम के उजाले 
ज्यों बुने हों मकड़ियों ने 
सघन जाले 
कामनायुत पलक से 
बहती रहूँ या धार लूँ 
उनको हृदय में साज स्यंदन 
तय करेगी यह तुम्हारी ही 
शुभेच्छा ॥

दीप खुश है पर शिखा 
भयभीत डोले 
तिमिर रह रह रोशनी का 
मन टटोले
आँधियों से जीत लूँ यह 
समर पहले 
फ़िर सजाऊँ चौक पूरित 
प्रणय आँगन 
तय करेगी यह तुम्हारी ही 
अपेक्षा ॥


हो गये दिन गुलमोहर से..


हो गये दिन गुलमोहर से 
ज्यों हुईं फसलें सुनहरी ॥

बिटिया पीहर आयेगी,
पाहुन आयेंगे 
किलकारी के कलरव से 
मन भर जायेंगे 
तुलसी की डालों पर होंगी 
मँजरियाँ भी 
दादी की लोरी में नाचेंगीं
परियाँ भी 

खुल कर हुए संवाद सच्चे 
ज्यों लगी सुख की कचहरी ॥

भोर कान्ता सी जायेगी 
महुआ बिनने 
सूरज आयेगा सतरंगी 
घूँघट बुनने 
कच-कच अमिया दाल पड़े,
छौँका महकेगा 
घनीभूत आशाओं में 
जीवन लहकेगा 

भर गये कोने खुशी से 
ज्यों हुईं मनहर दुपहरी ॥

अमराई सुर में भरकर 
कोयल गायेगी 
ठिठुरे घर के छज्जे 
पर चिड़ियाँ आयेँगी 
पायल मचलेगी गोदी 
में पाँव नये की 
सूखी टहनी बात कहेगी 
पात नये की 

हो गया नर्तन सजीला 
ज्यों हुईं काया छरहरी ॥


तुम्हीं बताओ !


तुम्हीं बताओ !
कैसी होगी फसल तुम्हारी ॥

कर्जे की गुर्राहट अब 
बर्दाश्त न होती 
जर्जर हालत पर,आशा 
भी आशा खोती 
छोटी फ्राकोँ में कब तक 
पेबन्द लगाऊँ
नरम डाल को बोलो कितना 
और झुकाऊँ

नींद नहीँ आती है खटिया 
देख खरारी 
तुम्हीं बताओ !

दाल हुई बनिया की बेटी 
पास न आती 
नये पाँव को पायल की 
मनुहार न भाती 
भोर, भुरारे से ले आती 
चटक दुपहरी 
लग जाती चिंता की,आँगन 
सघन कचहरी 

कब तक डालोगे फसलों में 
खाद उधारी 
तुम्हीं बताओ

तंग हो रहा धीरज का मन 
हिम्मत रूठी 
डर है सारी ही कसमें 
हो जायें न झूठी 
रोपी थी फुलवारी जो 
हमने सपनों की 
टूट न जाये माला मुक्ता-सी 
अपनों की 

कुछ तो करो जतन पूरी 
हो आस हमारी 
तुम्हीं बताओ !


क्या हुआ जो आ गए.. 


क्या हुआ जो आ गए 
ये श्याम बादल 
छाँह बिन बेचैन मन
जीवन हुआ है ।

मूँदने को है नहीं 
उनपर झरोखा 
और ये बौछार भीतर 
जा रही है 
लकड़ियाँ भी भीगकर 
सहमी हुईं हैं 
आग-चूल्हे में पड़ी 
सिसिया रही है 

क्या हुआ जो धुल गए 
हर डाल के दल
भूख से बेचैन मन 
बचपन हुआ है ।

दामिनी भरती छलांगें 
जब गगन से 
सिर छुपाने को नहीं 

मिलता ठिकाना 
बिहँसती होगी भले,
अट्टालिकाएं 
झोपड़ी को है कठिन 
खुद को बचाना 

क्या हुआ जो भर गए 
हैं कूप के तल 
कींच से बेचैन मन
दर्पन हुआ है ।


कल्पना 'मनोरमा'



  • जन्म- 4 जून, 1972 (ईकरी- इटावा )
  • शिक्षा - परास्नातक ,बी.एड. (हिन्दी )
  • पिता -श्री प्रकाश नारायण मिश्र
  • माता -स्व.मनोरमा मिश्रा 
  • प्रकाशित कृतियाँ- पहला गीत -नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन ।
  • सम्प्रति - स्नातकोत्तर शिक्षिका 
  • विशेष -स्वतंत्र लेखन
  • सम्पर्क-C-5 WAC SMQ, वायुसेना स्टेशन सब्रोटो पार्क, नई दिल्ली -110010
  • फोन-8953654363/9455878280
  • ईमेल-kalpna2510@gmail.com

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